नई दिल्ली (नेहा): सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अहम टिप्पणी की कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को वापस भेजे बिना अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं, तो क्या इसका मतलब है कि निर्वाचित सरकारें अब राज्यपाल की मर्जी पर चलेंगी। कोर्ट राष्ट्रपति के संदर्भ पर उस फैसले की सुनवाई कर रही थी जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा में बांधना जरूरी है। केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि राज्यपाल एक बार मंजूरी न देकर किसी भी बिल को समाप्त कर सकते हैं। इस पर सीजेआई जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय बेंच ने कहा कि ऐसी स्थिति में चुनी हुई सरकार का कामकाज राज्यपाल की मनमानी पर निर्भर हो जाएगा।
सुनवाई के दौरान जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने स्पष्ट किया कि यह संभव नहीं कि राज्यपाल के पहली बार असहमति जताने के बाद मामला वहीं खत्म हो जाए। उन्होंने कहा कि राज्यपाल विधेयक को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं। लेकिन यह कहना कि ‘नहीं’ बोलते ही बिल खत्म हो जाएगा, यह विधायी शक्ति और संविधान की भावना दोनों के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को विवेकाधिकार का उपयोग खुला रखना चाहिए, क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया ऐसे ही चल सकती है।
केंद्र की ओर से तुषार मेहता ने दलील दी कि यदि शासन व्यवस्था का कोई अंग अपने अपेक्षित कार्य में असफल होता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरा अंग उसकी भूमिका संभाले। उन्होंने कहा कि संविधान की व्याख्या सबसे कठिन परिस्थितियों के आधार पर नहीं की जानी चाहिए। संविधान सभा की बहसों का हवाला देते हुए मेहता ने कहा कि राज्यपाल सिर्फ एक प्रतीकात्मक पद नहीं हैं, बल्कि व्यवस्था में उनकी अहम भूमिका है। हालांकि कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्या राज्यपालों ने सचमुच संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं को पूरा किया है