बीजेपी सांसदों ने हाल ही में संसद में एक महत्वपूर्ण मांग उठाई है। उनकी मांग है कि पूजा अधिनियम 1991 को समाप्त किया जाए। यह अधिनियम धार्मिक स्थलों की स्थिति को 15 अगस्त, 1947 की स्थिति में बरकरार रखने का आदेश देता है।
बी जे पी की मांग के पीछे का कारण
बीजेपी सांसदों का तर्क है कि यह अधिनियम विभिन्न समुदायों के बीच सद्भावना और समरसता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू किया गया था। हालांकि, इसने कई विवादों को भी जन्म दिया है। सांसदों का मानना है कि इस अधिनियम के समाप्त होने से उन विवादों का समाधान संभव होगा।
इस अधिनियम के खिलाफ उठाई गई आवाज़ में यह भी कहा जा रहा है कि यह धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। धार्मिक स्थलों के संबंध में निर्णय लेने की स्वतंत्रता पर इसके प्रभाव को लेकर चिंताएँ व्यक्त की जा रही हैं।
सांसदों की इस मांग के पीछे एक बड़ी राजनीतिक और सामाजिक चर्चा भी छिपी हुई है। इसे लेकर समाज के विभिन्न वर्गों में व्यापक बहस और चिंतन की स्थिति बनी हुई है।
इस मांग को लेकर संसद में जो चर्चा हुई, वह न सिर्फ इस अधिनियम के विषय में थी बल्कि इससे जुड़े व्यापक सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर भी केंद्रित थी। संसद में प्रस्तुत किए गए तर्कों और विचारों में गहनता और विविधता देखने को मिली।
अंत में, यह मांग सिर्फ एक कानूनी परिवर्तन की बात नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज में धार्मिक स्थलों के महत्व और उनके प्रति नजरिए को नए सिरे से परिभाषित करने की दिशा में एक कदम है। इस चर्चा का परिणाम क्या होगा, यह समय ही बताएगा, लेकिन इसने निश्चित रूप से एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक बहस को जन्म दिया है।